समय के लम्बे अंतराल में एक समय ऐसा भी आया जब कुछ पाश्चात्य विद्वान बुद्ध को इतिहास पुरुष मानने को भी तैयार नहीं थे। वह बुद्ध को सूर्य देवता की एक पौराणिक कल्पना मात्र मानकर चलते थे। यहाँ तक कि विनय पिटक की अट्ट कथा ‘समंत पासरिका’ में आये उन विवरणों को भी संदेह की दृष्टि से देखा जाने लगा जिसके अनुसार कई देशों में बुद्ध के संदेशों को प्रचारित करने के लिए कई धर्म दूत भेजे गए थे। परन्तु विदेशी विद्वानों के ये सभी कयास तब काफूर हो गये जब भगवान् बुद्ध के जन्म स्थान लुम्बिनी के पास पिपरहवा में स्थित उनके अस्थिपरंजक पर भारत की प्राचीनतम ब्राह्मी लिपि में उत्कीर्ण यह यह सन्देश मिला- ”इयं सलिल निधने बृधस भगवते साकियानं सुकिनिभतिनं सभगिनकनं समुत्दलनम्”।
इसी तरह साँची के स्तूपों में ई.पू. तीसरी व दूसरी सदी के करंडों में सारिपुत्र मौद्गाल्यायांइन की संगृहीत अस्थियों में अंकित तथ्यों से इस बात के स्पष्ट संकेत मिले कि बौद्ध कथा काल्पनिक नहीं है। इन अभिलेखों ने बुद्ध की ऐतिहासिकता को संदेह के परे पूर्ण रूप से सिद्ध कर दिया। बुद्ध का जन्म लुम्बिनी में ५६३ ई.पू. में हुआ था और महापरिनिर्वाण ४८३ ई.पू. में कुशीनगर में। उन्होंने जीवन के कुछ प्ररामिक वर्ष सत्य की खोज में साधना व ध्यान में भी बिताये, परन्तु इसी ध्यानावस्था में बोधगया में ५२८ ई.पू. में उन्हें ज्ञान की प्राप्ति हुई। ५२८ ई.पू. से ४८३ ई.पू. तक वह निरंतर बिहार व उत्तर प्रदेश का भ्रमण करते रहे. उन्होंने इसके बाहर कभी कदम नहीं रखा। इन यात्राओं के दौरान उन्होंने अनेक प्रवचन दिए, परन्तु उनके जीवनकाल में इनके उपदेशों का कोई पाठ-निश्चय नहीं हो पाया था, क्योंकि यह सारे ही सन्देश यत्र-तत्र बिखरे पड़े थे। यह सभी संदेश उनके शिष्यों के मानसमंडल में अंकित थे, अतः इनका पाठ-निश्चय करना आवश्यक समझा गया।
इसीलिए ई.पू. ४८३ में महात्मा बुद्ध के परिनिर्वाण के दो माह के बाद ही उनके अनुयाइयों ने उनके संदेशों को एकत्रित करने तथा उनका पाठ-निश्चय करने के लिए राजगृह में एक सभा का आयोजन किया, जिसे प्रथम बौद्ध संगीति के नाम से जाना जाता है। इसके बाद बौद्ध धर्म का और विकास होता रहा, परन्तु इस क्रम में इसके तौर तरीकों में कुछ विवादों ने भी आकार ग्रहण कर ही लिया। इन्हीं सब विवादों को सुलझाने के लिए प्रथम संगीति के एक सौ वर्ष बाद वैशाली में एक दूसरी सभा का आयोजन किया गया, जिसे इतिहास द्वितीय बौद्ध संगीति के नाम से जानता है। इस संगीति के बाद ही बौद्धों के दो निकाय बन गए-स्थिरवादी और महासांधिक।
२६३ ई.पू. तक यही दो निकाय बंट कर १८ उपनिकायों में विभक्त हो चले। ईस्वी सन् की चौथी-पांचवीं सदी के आते-आते महायान सम्प्रदाय की भी उत्पत्ति हो गई। यह विभाजन भी यहीं नहीं रुका। सातवीं सदी के आते आते इसी महायान से एक और बौद्ध मत की उत्पत्ति हो गई, जिसे बज्रयान नाम मिला. वस्तुतः बौद्ध धर्म का जिस रूप में भारत में आलोप हुआ, वह यही बज्रयान धर्म ही था। यों तो बौद्ध धर्म का प्रसार महात्मा बुद्ध के समय में ही प्रारंभ हो गया था, परन्तु इसे देश के बाहर ले जाने का वृहद् कार्य चन्द्रगुप्त मौर्य के पोते सम्राट आशोक (३८४-२३२ ई.पू.) के समय में बहुत अधिक हुआ।
यद्यपि अशोक महान को राज्य प्राप्ति २७४ ई.पू. में ही हो गई थी, परन्तु वह निरंतर युद्धों में ही रत रहे। परन्तु कलिंग के युद्ध में बही मानव रक्त की विशाल नदियों के कारण उनका मन विचलित हो गया था और उन्हें अहिंसा का मार्ग अपनाना पड़ा। इसीलिए उन्होंने २६३ ई.पू. में बौद्ध धर्म अंगीकार कर लिया। उन्होंने सबसे पहिले अपने पुत्र महेंद्र तथा बाद में पुत्री संघमित्रा को बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए सिंघल द्वीप भेजा। यही नहीं उन्होंने भारत भर में बौद्ध स्तूपों का निर्माण करवाया। उनके ही समय में भारत से बाहर इस धर्म का प्रचार-प्रसार सर्वाधिक हुआ। भारत और मध्य एशिया के पश्चिमी भाग में इस्लाम के प्रादुर्भाव के कारण इसकी बढवार रुक गई, पर मंगोलिया से लेकर समूचे दक्षिण पूर्व एशिया तक में यह खूब फला फूला।
भारत में न सही, कई देशों में यह अब भी जीवंत है। भारत में इसके अस्तित्व को जो सबसे बड़ा आघात लगा वह पाली भाषा के पठन-पाठन की व्यवस्था का अभाव ही है क्योंकि बौद्ध धर्म से सम्बंधित समूचा प्राचीन साहित्य पाली भाषा में ही है। अब पाली भाषा के न तो विद्वान उपलव्ध हैं और न ही सामान्य पाठक। जो थोड़ा बहुत बौद्ध साहित्य संस्कृत में है, वह भी अब अध्ययन क्षेत्र से बाहर ही चला गया है।
आलेख : श्री उदय टम्टा (वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारी से. नि. )